skip to main |
skip to sidebar
एक बरस बीत गया
एक बरस बीत गया
झुलासाता जेठ मास
शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया
सीकचों मे सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक
गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया
पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
माननीय अटल जी की ये कविता हमें अतीत को भूल आने वाले नए अनुभवों की अनुभूति और नव सृजन पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है !
इस वर्ष को बीतने में अब कुछ ही दिन शेष बचे हैं, इस बीतते वर्ष में हमने क्या खोया है पाया ?इस पर विचार करते हुए हमे आने वाले नव वर्ष में कुछ नए स्वपन को साकार करना है !